हाल ही में, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के प्रशासन के खिलाफ एक बड़ा मुकदमा दायर किया है। कारण? ट्रम्प प्रशासन ने हार्वर्ड को विदेशी छात्रों को दाखिला देने से रोक दिया है। यह फैसला न सिर्फ हार्वर्ड के लिए, बल्कि दुनिया भर के उन 6,800 विदेशी छात्रों के लिए भी झटका है, जो वहां पढ़ रहे हैं। इनमें से 788 छात्र भारत से हैं। आइए, इस पूरे मामले को आसान भाषा में समझते हैं और जानते हैं कि इसका भारतीय और अन्य विदेशी छात्रों पर क्या असर पड़ेगा।
ट्रम्प प्रशासन का फैसला: क्या है पूरा मामला?
22 मई, 2025 को ट्रम्प प्रशासन ने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी को विदेशी छात्रों को दाखिला देने से रोकने का आदेश दिया। यह फैसला अमेरिका के डिपार्टमेंट ऑफ होमलैंड सिक्योरिटी (DHS) ने लिया, जो स्टूडेंट एंड एक्सचेंज विजिटर प्रोग्राम (SEVP) को नियंत्रित करता है। इस प्रोग्राम के तहत विदेशी छात्र अमेरिका में पढ़ाई के लिए वीजा पाते हैं। ट्रम्प प्रशासन का कहना है कि हार्वर्ड ने उनके कुछ नियमों का पालन नहीं किया, खासकर कैंपस में यहूदी-विरोधी गतिविधियों (antisemitism) और डाइवर्सिटी नीतियों को लेकर।
इसके जवाब में, हार्वर्ड ने 23 मई को मुकदमा दायर किया। यूनिवर्सिटी का कहना है कि यह फैसला असंवैधानिक है और ट्रम्प प्रशासन की ओर से बदले की कार्रवाई है। हार्वर्ड के मुताबिक, यह कदम सिर्फ उनकी नीतियों के खिलाफ नहीं, बल्कि अमेरिका के संविधान के खिलाफ भी है।
विदेशी छात्रों पर क्या असर पड़ेगा?
हार्वर्ड में करीब 6,800 विदेशी छात्र पढ़ते हैं, जो कुल छात्रों का 27% हैं। इनमें से एक-तिहाई चीन से और 788 भारत से हैं। ट्रम्प प्रशासन के इस फैसले का मतलब है कि:
- 2025-2026 सत्र के लिए हार्वर्ड नए विदेशी छात्रों को दाखिला नहीं दे सकता।
- वहां पढ़ रहे विदेशी छात्रों को अब दूसरी यूनिवर्सिटी में ट्रांसफर करना होगा, वरना उनका वीजा रद्द हो सकता है।
- जो छात्र ग्रेजुएशन के करीब हैं, उनकी डिग्री और नौकरी की संभावनाएं खतरे में हैं, क्योंकि उनका वीजा स्टूडेंट स्टेटस से जुड़ा है।
कल्पना करें, आपने सालों मेहनत की, हार्वर्ड जैसे विश्वविद्यालय में दाखिला लिया, और अब आपको अचानक सब छोड़कर दूसरी यूनिवर्सिटी में जाना पड़े। यह कितना मुश्किल होगा? खासकर भारतीय छात्रों के लिए, जो अपने सपनों को पूरा करने के लिए इतनी दूर आए हैं।
हार्वर्ड और ट्रम्प प्रशासन के बीच तनाव की जड़?
यह पहली बार नहीं है जब हार्वर्ड और ट्रम्प प्रशासन आमने-सामने आए हैं। कुछ महीनों पहले, ट्रम्प प्रशासन ने हार्वर्ड के 3 बिलियन डॉलर के फेडरल फंड्स को फ्रीज कर दिया था। हार्वर्ड ने इसके खिलाफ भी मुकदमा किया था। ट्रम्प प्रशासन का दावा है कि हार्वर्ड में यहूदी-विरोधी गतिविधियां बढ़ रही हैं और उनकी डाइवर्सिटी, इक्विटी, और इनक्लूजन (DEI) नीतियां “नस्लवादी” हैं।
दूसरी ओर, हार्वर्ड का कहना है कि यह सब राजनीतिक बदले की कार्रवाई है। यूनिवर्सिटी का कहना है कि उन्होंने हमेशा नियमों का पालन किया है और यह कदम उनकी स्वतंत्रता और अकादमिक मूल्यों पर हमला है। हार्वर्ड के राष्ट्रपति ने इसे “गैरकानूनी” और “अनुचित” बताया है।
भारतीय छात्रों के लिए इसका क्या मतलब है?
भारत से हर साल 500-800 छात्र हार्वर्ड में दाखिला लेते हैं। इस साल 788 भारतीय छात्र वहां पढ़ रहे हैं। उनके लिए यह खबर किसी बड़े झटके से कम नहीं। अगर यह फैसला लागू रहा, तो:
- नए भारतीय छात्र 2025-2026 सत्र के लिए हार्वर्ड में दाखिला नहीं ले पाएंगे।
- वहां पढ़ रहे छात्रों को दूसरी यूनिवर्सिटी में ट्रांसफर करना होगा, जो समय और पैसे दोनों की बर्बादी है।
- कई छात्रों का भविष्य अनिश्चित हो गया है, खासकर उन लोगों का जो ग्रेजुएशन के बाद अमेरिका में नौकरी की तलाश में हैं।
भारत में माता-पिता अपने बच्चों को हार्वर्ड जैसे संस्थानों में भेजने के लिए सालों तक मेहनत करते हैं। अब इस तरह की अनिश्चितता उनके सपनों पर पानी फेर सकती है।
क्या कोई उम्मीद बाकी है?
हार्वर्ड ने इस फैसले के खिलाफ कोर्ट में लड़ाई शुरू कर दी है। कुछ अच्छी खबर भी है। कैलिफोर्निया में एक फेडरल जज ने ट्रम्प प्रशासन को देश भर के विदेशी छात्रों का वीजा स्टेटस खत्म करने से रोक दिया है। इसका मतलब है कि हार्वर्ड के छात्रों को अभी गिरफ्तारी या डिपोर्टेशन का डर नहीं है, लेकिन मामला कोर्ट में है और कुछ भी हो सकता है।
इसके अलावा, हार्वर्ड को 72 घंटे का समय दिया गया है कि वह DHS की कुछ मांगों को पूरा करे, जैसे पिछले पांच सालों के विदेशी छात्रों के डिसिप्लिनरी रिकॉर्ड्स देना। अगर हार्वर्ड ऐसा करता है, तो शायद उसे फिर से विदेशी छात्रों को दाखिला देने की इजाजत मिल जाए। लेकिन यह इतना आसान नहीं है, क्योंकि हार्वर्ड का कहना है कि ये मांगें उनकी नीतियों और गोपनीयता नियमों के खिलाफ हैं।
वैश्विक प्रतिक्रियाएं और भविष्य की संभावनाएं?
इस फैसले का असर सिर्फ हार्वर्ड या अमेरिका तक सीमित नहीं है। जर्मनी के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री कार्ल लॉटरबाख ने इसे “रिसर्च पॉलिसी सुसाइड” बताया है। उनका कहना है कि विदेशी छात्रों को रोकना अमेरिका की अकादमिक और वैज्ञानिक प्रगति के लिए नुकसानदायक है। चीन ने भी कहा है कि यह कदम अमेरिका की छवि को खराब करेगा। दूसरी यूनिवर्सिटीज भी डर में हैं। ट्रम्प प्रशासन ने कोलंबिया यूनिवर्सिटी को भी निशाना बनाया है, जहां 39% छात्र विदेशी हैं। अगर यह सिलसिला जारी रहा, तो अमेरिका की उच्च शिक्षा प्रणाली को बड़ा नुकसान हो सकता है। विदेशी छात्र न सिर्फ यूनिवर्सिटीज के लिए आर्थिक योगदान देते हैं, बल्कि नई सोच और संस्कृति भी लाते हैं।
निष्कर्ष: आगे क्या?
यह मामला अभी कोर्ट में है, और इसका नतीजा न सिर्फ हार्वर्ड, बल्कि पूरी दुनिया के छात्रों और यूनिवर्सिटीज पर असर डालेगा। भारतीय छात्रों के लिए यह एक अनिश्चित समय है, लेकिन हार्वर्ड की कानूनी लड़ाई और अंतरराष्ट्रीय समर्थन से उम्मीद की किरण बाकी है। अगर आप या आपका कोई जानने वाला हार्वर्ड में पढ़ रहा है, तो यह समय धैर्य और सही जानकारी रखने का है।
क्या आपको लगता है कि यह फैसला उचित है? या यह सिर्फ राजनीतिक खेल है? अपनी राय हमें कमेंट्स में बताएं। और अगर आप विदेश में पढ़ाई की योजना बना रहे हैं, तो इस तरह की खबरों पर नजर रखें।